दहर-पुण्डरीक में ब्रह्म की उपासना
भावार्थ:
यह मानव-शरीर ब्रह्मपुर है। इसके अन्दर एक क्षुद्र लघु कमल -कुसुम के आकार का गृह है जिसके अन्दर एक छोटा-सा आकाश है। इसी आकाश में एक निगूढ़ रहस्य है जिसका अन्वेषण करना होगा।
शाङ्करभाष्यार्थः
अथ-इसके पश्चात [ यह कहा जाता है कि ] यह आगे कहा जाने वाला दहर अर्थात् छोटा-सा कमल-सदृश्य गृह है-द्वारपालादि से युक्त होने के कारण जो गृह के समान गृह है वह इस ब्रह्मपुर में -ब्रह्म अर्थात् परमात्मा के पुर में जैसा कि राजा का अनेकों प्रजाओं से युक्त पुर होता है उसी प्रकार यह शरीर भी आत्मारूप अपने स्वामी का अर्थ सिद्ध करने वाली अनेकों इन्द्रियों तथा मन और बुद्धि से युक्त पुर है अतः यह ब्रह्मपुर है। जिस प्रकार पुर में राजा का भवन होता है उसी प्रकार उस ब्रह्मपुररूप शरीर में एक सूक्ष्म गृह अर्थात् ब्रह्म की उपलब्धि का अधिष्ठान है जिस प्रकार कि शालग्रामशिला विष्णु की उपलब्धि की अधिष्ठान होती है-ऐसा इसका तात्पर्य है।
इस अपने विकारभूत कार्यदेह में सत्संज्ञक ब्रह्म नामरूप की अभिव्यक्ति करने के लिये जीवात्मभाव से अनुप्रविष्ट है-यह कहा जा चुका है। इसी से जिन्होंने इस हृदयकमलरूप भवन में अपने इन्द्रियवर्ग का उपसंहार कर दिया है उन बाह्य विषयों से विरक्त विशेषतः ब्रह्मचर्य एवं सत्यरूप साधनों से सम्पन्न तथा आगे बतलाये जाने वाले गुणों से युक्त पुरुषों द्वारा चिन्तन किये जाने पर ब्रह्म की उपलब्धि होती है-ऐसा इस प्रकरण का तात्पर्य है।
इस सूक्ष्म गृह में दहर-अत्यन्त सूक्ष्म अन्तराकाश अर्थात् आकाशसंज्ञक ब्रह्म है। गृह सूक्ष्म होने के कारण उसके अन्तर्वर्ती आकाश का सूक्ष्मतरत्व सिद्ध होता है। ‘आकाश ही नाम-रूप का निर्वाह करने वाला है‘ ऐसा श्रुति कहेगी भी। आकाश के समान अशरीर होने के कारण तथा सूक्ष्मत्व और सर्वगतत्व में उससे समानता होने के कारण उसे आकाश कहा गया है। उस आकाशसंज्ञक तत्त्व के अन्दर जो वस्तु है उसका अन्वेषण करना चाहिये तथा उसी की विशेषरूप से जिज्ञासा करनी चाहिये अर्थात् गुरु के आश्रय तथा श्रवणादि उपायों से अन्वेषण करके उसका साक्षात्कार करना चाहिये-ऐसा इसका तात्पर्य है।
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